कैसा है ये बंधन, जो बनने से पहले टूट जाता है?
कैसी गांठ है यह, जो बंधने से पहले खुल जाती है?
कैसी है यह ख़ामोशी, जो हर सच बयां करती है?
कैसा है यह लम्हा जिसमे सारी ज़िन्दगी बिखर जाती है?
क्यों हर लहर धरा से मिलने से पहले सिमट जाती है?
क्यों समुन्दर को आशियाँ बना, धरती से को ललचाती है?
यही मर्ज़ी है इस उफनती लहर की, तो क्यों ये इतना मचलती है?
क्यों करती है कोशिश माटी एक कतरे में सामने की?
यह कैसा नाता है बेनाम जिसे कायनात जोड़ती और तोड़ती रहती है?
क्यों इस सन्नाटे को चीरता शोर किसी को सुनाई नहीं देता?
एक पल में हर दर्द किस गहराई में डूब जाता है,
इन लभों पर एक झूठी हँसी खेलने लगती है
और रह जाता है जीवन का एक सच - की यह लहर फिर लौटेगी,
फिर इस समुन्द्र की गहरायिओं से निकल कर
फिर इस धरा में सिमट जाने को तरसेगी और तब तक मचलेगी
जब तक यह धरा उसे अपना न ले या उसमे समां ना जाये.